Saturday, 20 October 2018

 संघर्ष

 

जितने रोड़े डाल सके तू डाल दे मुकद्दर।
संघर्ष की अग्नि में ही उत्थानते सिकंदर॥

 

विजयश्री की मोहिनी भी आजीवन असफल रही।
कर्म है धर्म, फल नहीं, हुंकारते धुरंधर॥

 

हाथ उनका वासुकि सा वक्त पर लिपटा रहा।
फल स्वरुप अमृत को भी धिक्कारते बिलंदर॥

 

उन्नति परिणाम है।
विश्वरूपी श्याम है।
निरंतर श्रम-सैनिकों के।
घर में चारो धाम है॥


आलिंगन कर इस भाव को।
इस में ही अभिराम है।
कलियुग को सतयुग सा करदे।
भागवद का पैगाम है॥


कंचन निखरे या न निखरे।
आग नहीं नाकाम है।
सफल नहीं था कर्ण पर उसको।
दुनिया का सलाम है॥


वैष्णवतार प्रभु राम का जन्म।
अविच्छिन्न संग्राम है।
जीवन भर संघर्ष किया तब। 
मुँह पे सबके राम है॥
 

-Rj