Friday, 17 July 2015

भिखारी

अल्प न्यूनतम ज़रूरतें पर,
पूर्ण जगत का मैं अधिकारी |
उनकी क्या औकात है प्यारे
जो कहते है मुझे भिखारी ||

प्यारे, तू तो बँधा है यहाँ,
किसीका नौकर, दफ़्तरधारी |
आसमानी छत भूषित, साधा,
मेरा दफ़्तर, दुनियादारी ||

मेरे दफ़्तर आते हो जब,
हसते हैं हम सब सहकारी |
तेरे दफ़्तर जाने वाला! अरेरे!
क्या होगी उसकी लाचारी ||

उपर से सौंदर्य रहित हूँ,
करीब-करीब निर्वस्त्र है स्वारी |
गंध से तो चूहे शरमाएँ,
अस्वच्छता मानव रूप धारी |
पर इस का द्वेष नही है क्यूंकी
तुझसा मन ना है अहंकारी |
मुझे देख तिरस्कार दिखाता?
चोर है फिर कोतवाल पे भारी !
 
जिस पथ से तू रोज़ गुज़रता,
वक़्त से करते भागादौड़ी |
वही सड़क तो घर है मेरा,
वहीं लगाता हूँ मैं गाड़ी |
धंधे का एक मर्म है मेरा,
मेरी निराशा हो तुझपे भारी |
भावनाओं के खुले बज़ार में,
मैं करुणा का व्यापारी ||


एक लकीर का अंतर हम में
फिर क्यूँ रखता है यह दूरी ?
बड़े हृदय का धनी हूँ, प्यारे,
आजा, कैसी है मजबूरी ?

देख के मुझको दर्द में डूबा,
तेरा मन हो चुका है भारी |
किसी तरह मेरी तकलीफें,
हल करने की करे तैयारी ||
तेरा पैसा फेकेगा फिर,
दया का सागर, तू उपकारी |
पर, तू क्या जाने, ठग चुका तुझे,
ग़रीब, बिचारा यह भिखारी ||

-Rj